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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2642
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर

अध्याय - 1

भगवद्गीता का नीतिशास्त्र

(The Ethics of Bhagavadgita)

 

प्रश्न- गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की अवधारणा की विवेचना कीजिए।

उत्तर -

गीता में स्थितप्रज्ञ की अवधारणा अत्यन्त महत्वपूर्ण है। निष्काम कर्मयोग के अलावा भारतीय समाज को गीता की दूसरी महत्वपूर्ण देन स्थितप्रज्ञ का आदर्श है। गीता में आत्मसाक्षात्कार या ईश्वर लाभ करने वाले व्यक्ति को स्थितप्रज्ञ कहा गया है।

गीता में ईश्वर लाभ के कई मार्ग बताये गये हैं- ज्ञानयोग, भक्तियोग, निष्काम कर्मयोग एवं प्रवृतिमार्ग। गीता का स्पष्ट मत है कि किसी भी मार्ग का अनुसरण करके आत्म-लाभ या ईश्वर का साक्षात्कार सम्भव है। यद्यपि गीता निष्काम कर्मयोग को इस हेतु सर्वोत्तम मार्ग मानती है, क्योंकि ईश्वर लाभ के विभिन्न मार्गों का तुलनात्मक मूल्यांकन करते हुए गीता में स्पष्ट कथन है "मुझे जानने का प्रयास करो। यदि तुम मेरा चिन्तन नहीं कर सकते हो तो योगाभ्यास करो। यदि यह तुम्हारे अनुकूल नहीं है तो अपने सभी कर्मों को हमें अर्पित करके मेरी सेवा करो। यदि यह भी तुम्हें कठिन प्रतीत हो तो अपने कर्तव्य का पालन करो, किन्तु फल की आकांक्षा मत करो।' गीता का यह मत है कि ईश्वर - लाभ या आत्मसाक्षात्कार इसी जीवन में संभव है। गीता ईश्वर-लाभ प्राप्त व्यक्ति को 'स्थितप्रज्ञ' कहती है। इस प्रकार भारतीय विचारधारा को गीता की दो महत्वपूर्ण देन हैं निष्काम कर्मयोग का आदर्श और स्थितप्रज्ञ की अवधारणा। माता-पिता स्थितप्रज्ञ के आदर्श के अनुसार मानव जीवन की सर्वोच्च अवस्था और सर्वोच्च मूल्य हैं। इसका विवेचन गीता के 2/55, 56, 57, 58, 59, 60, 61 श्लोकों में विशेष रूप में हुआ है, यद्यपि गीता के अन्य स्थलों में भी स्थितप्रज्ञ सम्बन्धी उद्धरण प्राप्त होते हैं। श्रीकृष्ण ने सामाजिक स्थितप्रज्ञ के स्वरूप एवं व्यवहार के विषय में अर्जुन द्वारा पूछे गये प्रश्न के उत्तर के सन्दर्भ में इसका विवेचन किया है।, गीता में स्थितप्रज्ञ एवं समाधिस्त का एक ही अर्थ है। स्थितप्रज्ञ वह है जिसकी प्रज्ञा या बुद्धि स्थिर हो जाती है। यह जाग्रत अवस्था की समाधि है। इस अवस्था में परमात्मा के साथ अखण्ड सम्बन्ध स्थापित होता है और सभी कार्यों को करते हुए भी अकर्त्तापन का अनुभव होता है। यह ब्रह्म में निवास करने की अवस्था है (निवासिण्यति मय्येव )। यह ब्राह्मी स्थिति है। स्थितप्रज्ञ इसी जीवन में पूर्णता प्राप्त कर लेता है। इस अवस्था को प्राप्त करने वाले व्यक्ति ईश्वर के पद को प्राप्त करते हैं और पुनर्जन्म के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं। स्थितप्रज्ञ की अवस्था ध्यानजन्य समाधि एवं निद्रा से भिन्न अवस्था है। निद्रावस्था की लय सबीज लय है, क्योंकि इस अवस्था में अज्ञान का बीज बना रहता है। समाधि में भी काम-क्रोध आदि के बीज बने रहते किन्तु स्थितप्रज्ञ की समाधि लय नहीं है, एक स्थिति है। लय मन की एक वृत्ति है जिसमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। स्थितप्रज्ञ जाग्रत अवस्था में ही परमात्मा में स्थिर बुद्धि की आवश्यकता है। गीता में स्थितप्रज्ञ के निम्नलिखित लक्षण प्राप्त होते हैं स्थितप्रज्ञ में सभी कामनाओं एवं वासनाओं का परित्याग हो जाता है। इसमें शुद्ध एवं अशुद्ध दोनों प्रकार की वासनाओं का त्याग शामिल है। सत्य की गणना शुद्ध वर्ग में आती है तथा रजस एवं तमस् की गणना अशुद्ध वर्ग में की जाती है। स्थितप्रज्ञ दोनों प्रकार की वासनाओं एवं कामनाओं से रहित होता है। वह सदैव अपने में अपने से ही सन्तुष्ट रहता है। सात्विक वासनाओं का त्याग ईश्वर भक्ति से ही सम्भव है। सच्ची भक्ति होने पर वह निरन्तर परमानन्द में डूबा रहता है।

प्रजाहाति यदा कामान् सर्वान्पार्य मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तषृः स्थितप्रज्ञस्त दोय्पते ॥

स्थितप्रज्ञ दुःखों में अनुद्विचित एवं सुखों में स्पृहरहित ( अनासक्त) है। चूँकि उद्विग्नता राग, भय एवं क्रोध से उत्पन्न होती है एवं भय तथा क्रोध इच्छाजन्य हैं। पुनः चूँकि स्थितप्रज्ञ सभी कामनाओं से रहित होता है अतः वह अनुद्विग्नाचित होता है। उसकी आसक्ति केवल ईश्वर में होती है और जगत के प्रति अनासक्त रहता है, क्योंकि जगत के सभी पदार्थ अनित्य होते हैं -

दुः खण्वनुद्विग्न मनाः सखेषु विगत स्पृहा।
वीतराग भय क्रोध स्थित धीर्यु निरुच्चते ॥

स्थितप्रज्ञ शुभ और अशुभ, प्रिय एवं अप्रिय सभी स्थितियों में तटस्थ रहता है क्योंकि वह समझता है कि ये सभी स्थितियाँ ईश्वर के अधीन हैं। इस कारण वह शुभ और प्रिय स्थिति के प्राप्त होने पर प्रसन्न नहीं होता तथा अशुभ और अप्रिय स्थितियों में दुःखी भी नहीं होता। वह जितेन्द्रिय होता है। उसकी ग्यारह इन्द्रियाँ (पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय एवं मन) उसके नियन्त्रण में होती हैं।

यः सर्वार्नाभस्नेहस्तवत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि प्रज्ञा प्रतिष्ठता ॥
तानि सर्वानि सेयम्य युक्तः आसीत् मत्परः।
वभे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

गीता का स्थितप्रज्ञ आदर्श पुरुष है। उसमें ज्ञान, भक्ति एवं कर्म तीनों का समन्वय होता है। वह अनासक्त कार्य करता है अतः कर्मयोगी है। वह अपना मन एवं बुद्धि ईश्वर में लगाये रहता है और अपना सर्वस्व ईश्वर को अर्पित कर देता है, अतः वह ज्ञानी है। मण्डन मिश्र के अनुसार स्थितप्रज्ञ मात्र है, वह मुक्त पुरुष नहीं है किन्तु अधिकांश आचार्यों ने उसे मुक्त पुरुष ही स्वीकार किया है। वस्तुतः यह अद्वैत वेदान्त का जीवनमुक्त है। हम उसे बौद्ध दर्शन का बोधिसत्व भी कह सकते हैं। उसकी स्थिति ब्राह्मी स्थिति है। उसकी प्रज्ञा नित्य बह्म में प्रतिष्ठित रहती है -

एषा ब्राह्मीस्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामनन्त कालेअपि ब्राह्मनिर्वाणमृच्छति ॥

गीता स्थितप्रज्ञ के लिए भी कर्म करना आवश्यक मानती है। जब तक मुक्तात्मा इस संसार में जीवन धारण किए रहती है उसे कुछ न कुछ करना ही है। वह गीता के पुरुषोत्तम की तरह स्वतः निष्काम भाव से कर्म करती है। यद्यपि मुक्तात्मा सामाजिक कर्तव्यों से मुक्त होती है, तथापि वह जनसाधारण के प्रति संवेदनशील बनी रहती है। स्थितप्रज्ञ जनसाधारण के कल्याण के लिए कार्य तो करता है किन्तु वह अपने इन कर्मों के बन्धन में नहीं पड़ता। उसके सभी कार्य ईश्वर को समर्पित होते हैं जिसके फलस्वरूप वह उन कर्मों से ही प्रभावित नहीं होता जैसे कीचड़ उगा हुआ कमल उससे प्रभावित नहीं होता। वह शरीर के रहते हुए भी शरीर के धर्मों से अलग रहता है (लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रभवाम्भसा)। यहाँ गीता कर्म को अत्यन्त उँची स्थिति प्रदान करती है। वह किसी भी स्थिति में कर्म का पूर्ण त्याग संभव नहीं मानती। वह अकर्म को उतनी ही ग्राह्य मानती है जितना की बुरे कर्म को उदाहरणस्वरूप गीता राजा जनक और श्रीकृष्ण का उल्लेख करती है। जनक ने पूर्णता को प्राप्त कर लिया था और श्रीकृष्ण पूर्ण ही थे, किन्तु दोनों ही लोक संग्रह हेतु कर्मरत रहे। जगत के कल्याण के लिए कर्म करना आवश्यक है जो उनका स्वभाव बन जाता है। निवृत्ति का यह परिवर्तित आदर्श, जिसमें मुक्त पुरुष भी लोक कल्याण के लिए कार्य करता है, यह हिन्दू विचारधारा को गीता की महत्वपूर्ण देन है। सम्भवतः इसका प्रभाव बौद्ध दर्शन पर भी पड़ा। उल्लेखनीय है कि भगवान बुद्ध भी ज्ञान प्राप्ति के बाद जनसाधारण के दुःखों को दूर करने के लिए प्रयासरत रहे। अतः स्पष्ट है कि गीता दर्शन में 'स्थितप्रज्ञ' का अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है जिसके बिना गीता दर्शन अधूरा माना जा सकता है। स्थितप्रज्ञ की अवस्था का ज्ञान हो जाना ही गीता रहस्य का ज्ञान हो जाना है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
  2. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित लोक संग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  3. प्रश्न- गीता के नैतिक या आदर्श सिद्धान्त का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
  4. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।
  5. प्रश्न- गीता में वर्णित गुण की विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित स्वधर्म की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- गीता में वर्णित योग शब्द की विवेचना कीजिए।
  8. प्रश्न- गीता में वर्णित वर्ण एवं आश्रम का विवेचन कीजिए।
  9. प्रश्न- स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? क्या मनुष्य जीवन में इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है? संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  10. प्रश्न- निष्काम कर्मयोग का परिचय दीजिए।
  11. प्रश्न- गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति से आप क्या समझते हैं?
  12. प्रश्न- कर्म के सिद्धान्त का महत्व बताइए।
  13. प्रश्न- कर्म सिद्धान्त के दोष बताइए।
  14. प्रश्न- कर्मयोग के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  15. प्रश्न- लोक संग्रह पर टिप्पणी लिखिए।
  16. प्रश्न- भगवद्गीता में 'लोकसंग्रह के आदर्श' की विवेचना कीजिए।
  17. प्रश्न- पुरुषार्थ के अर्थ एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  18. प्रश्न- पुरुषार्थ की अवधारणा व विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
  19. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त के रूप में पुरुषार्थ की व्याख्या कीजिए।
  20. प्रश्न- विभिन्न पुरुषार्थ की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  21. प्रश्न- पुरुषार्थ का विश्लेषण कीजिए।
  22. प्रश्न- पुरुषार्थ में सन्निहित मानवीय मूल्यों के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।
  23. प्रश्न- पुरुषार्थ किसे कहते हैं?
  24. प्रश्न- धर्म किसे कहते हैं?
  25. प्रश्न- अर्थ किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- काम किसे कहते हैं?
  27. प्रश्न- धर्म पुरुषार्थ का जीवन में क्या महत्व है?
  28. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र में 'पुनर्जन्म के सिद्धान्त' की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप परिभाषा दीजिए तथा इसके क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए इसकी समस्याओं का विश्लेषण कीजिए।
  30. प्रश्न- धर्म-दर्शन एवं धर्म के परस्पर सम्बन्धों का विश्लेषणात्मक विवेचन कीजिए।
  31. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप की व्याख्या कीजिए। यह ईश्वरशास्त्र से किस प्रकार भिन्न है?
  32. प्रश्न- धर्म और दर्शन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- धर्म का क्या अभिप्राय है? सामान्य धर्म के लिए मनुस्मृति में किन मानवीय गुणों का उल्लेख किया गया है?
  34. प्रश्न- विशिष्ट धर्म किसे कहते हैं? इसके प्रमुख स्वरूपों की व्याख्या कीजिए।
  35. प्रश्न- सामान्य धर्म और विशिष्ट धर्म में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  36. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? व्याख्या कीजिए।
  37. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के पंचमहाव्रत सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  38. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के अणुव्रत सिद्धान्त का विवेचना कीजिए।
  39. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की तात्विक पृष्ठभूमि का विवेचन कीजिए।
  40. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
  41. प्रश्न- परमश्रेय की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  42. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र में 'त्रिरत्न' की अवधारणा की विवेचन कीजिए।
  43. प्रश्न- बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग की व्याख्या कीजिए।
  44. प्रश्न- 'बोधिसत्व' किसे कहते हैं? स्पष्ट कीजिए।
  45. प्रश्न- निर्वाण के स्वरूप का विवेचन कीजिए।
  46. प्रश्न- 'अर्हत्' पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  47. प्रश्न- बुद्ध के नीतिशास्त्र में साधन विचार का विवेचन कीजिए।
  48. प्रश्न- बौद्ध के नीतिशास्त्र सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  49. प्रश्न- गांधीवाद से आप क्या समझते हैं? राज्य के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में महात्मा गांधी की विचारधारा का वर्णन कीजिए।
  50. प्रश्न- गांधीवादी दर्शन का मूल आधार धर्म (सत्य और अहिंसा) था, संक्षेप में स्पष्ट करें।
  51. प्रश्न- गांधी जी की कार्य पद्धति पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- सत्याग्रह से आप क्या समझते हैं संक्षेप में समझाइये?
  53. प्रश्न- महात्मा गाँधी द्वारा प्रतिपादित ट्रस्टीशिप सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  54. प्रश्न- गाँधी जी के सात सामाजिक पाप कौन-से हैं?
  55. प्रश्न- गाँधी जी के एकादश व्रत कौन-से हैं? व्याख्या कीजिए।
  56. प्रश्न- नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? परिभाषा देते हुए इसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  57. प्रश्न- नीतिशास्त्र मानवशास्त्र से किस तरह जुड़ा है? स्पष्ट कीजिये।
  58. प्रश्न- नीतिशास्त्र की विषय-वस्तु क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  59. प्रश्न- नीतिशास्त्र से क्या अभिप्राय है? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र बताते हुए भारतीय एवं पाश्चात्य नीतिशास्त्र में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  60. प्रश्न- नीतिशास्त्र की प्रणालियों पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  61. प्रश्न- टेलीलॉजिकल नैतिकता और कर्तव्य आधारित नैतिकता का क्या अर्थ है? इन दोनों में अन्तर बताइए।
  62. प्रश्न- कान्ट के नैतिक सिद्धान्त को समझाइए।
  63. प्रश्न- नैतिक विकास का क्या अर्थ है? नैतिक विकास के चरणों का उल्लेख कीजिए।
  64. प्रश्न- नीतिशास्त्र एक आदर्श निर्देशक सिद्धान्त है। व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र को प्राथमिक जड़े कहाँ मिलती हैं? स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- क्या नीतिशास्त्र एक विज्ञान है?
  67. प्रश्न- नैतिक तथा नैतिक-शून्य कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  68. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की अवधारणा की व्याख्या कीजिए और उसकी काण्ट के कर्तव्य की अवधारणा से तुलना कीजिए।
  69. प्रश्न- नैतिक कर्म तथा नैतिक-शून्य कर्म में अन्तर लिखिए।
  70. प्रश्न- ऐच्छिक तथा अनैच्छिक कर्मों से आप क्या समझते हैं?
  71. प्रश्न- ऐच्छिक व अनैच्छिक कर्म में अन्तर बताइए।
  72. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? इसका स्वरूप तथा विशेषताएँ बताइए।
  73. प्रश्न- क्या नैतिक निर्णय कर्मों के परिणाम के आधार पर होता है? विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं अन्य निर्णयों में क्या अन्तर है?
  75. प्रश्न- 'साध्यों का साम्राज्य।' व्याख्या कीजिए।
  76. प्रश्न- नैतिक चेतना से आप क्या समझते हैं?
  77. प्रश्न- नैतिक चेतना के मुख्य तत्व बताइए।
  78. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति से आपका क्या तात्पर्य है?
  79. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति के लक्षण बताइए।
  80. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? साधन व साध्य का नीतिशास्त्र में क्या महत्व है?
  81. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं तार्किक निर्णय में अंतर क्या है?
  82. प्रश्न- क्या साध्य साधन को प्रमाणित करता है?
  83. प्रश्न- नैतिक निर्णय की आवश्यक मान्यताएँ क्या हैं? व्याख्या कीजिए।
  84. प्रश्न- नैतिकता की मान्यताओं की व्याख्या कीजिए।
  85. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक मान्यताओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- नैतिकता में किसका प्राधिकार है "चाहिए" का या आवश्यक का।
  87. प्रश्न- अनैतिक कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  88. प्रश्न- सुखवाद से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार का होता है?
  89. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक सुखवाद से आप क्या समझते हैं? समीक्षा कीजिए।
  90. प्रश्न- प्राचीन सुखवाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  91. प्रश्न- विकासवादी सुखवाद क्या है?
  92. प्रश्न- उपयोगितावाद के लिये सिजविक की क्या युक्तियाँ हैं? व्याख्या कीजिए।
  93. प्रश्न- बैन्थम के उपयोगितावाद की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  94. प्रश्न- बैंन्थम के स्थूल परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  95. प्रश्न- मिल के परिष्कृत उपयोगितावाद का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  96. प्रश्न- मिल के परिष्कृत परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  97. प्रश्न- उपयोगितावाद एवं अन्तःअनुभूतिवाद के सापेक्षिक गुणों का संकेत कीजिए।
  98. प्रश्न- कर्मवाद का सिद्धान्त भारतीय दर्शन का मुख्य स्तम्भ है। व्याख्या कीजिए।
  99. प्रश्न- मिल के उपयोगितावाद की प्रमुख विशेषताएं क्या है?
  100. प्रश्न- "सुखवाद के विरोधाभास" को स्पष्ट कीजिए।
  101. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक सुखवाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  102. प्रश्न- नैतिक सिद्धान्त के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  103. प्रश्न- रसेन्द्रियवाद क्या है? विवेचन कीजिए।
  104. प्रश्न- दार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का समीक्षात्मक विवेचन कीजिए।
  105. प्रश्न- बटलर के अन्तःकरणवाद या अन्तःप्रज्ञावाद सिद्धान्त का विवेचन कीजिए।
  106. प्रश्न- नैतिक गुण के विषय में अन्तः प्रज्ञावाद के विचार का विवेचन कीजिए।
  107. प्रश्न- अदार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  108. प्रश्न- काण्ट के अहेतुक आदेश के सिद्धान्त का आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।
  109. प्रश्न- बुद्धिवाद या कठोरतावाद तथा सुखवाद क्या है? वर्णन कीजिए।
  110. प्रश्न- स्टोइकवाद क्या है? व्याख्या कीजिए।
  111. प्रश्न- मध्यकालीन बुद्धिवाद या ईसाई वैराग्यवाद की व्याख्या कीजिए।
  112. प्रश्न- काण्ट के कठोरतावाद के रूप में आधुनिक बुद्धिवाद की व्याख्या कीजिए।
  113. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक सूत्र का आलोचनात्मक परिचय दीजिए।
  114. प्रश्न- काण्ट के नैतिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  115. प्रश्न- काण्ट के नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए एवं गीता के निष्काम कर्म से इसकी तुलना कीजिए।
  116. प्रश्न- काण्ट के बुद्धिवादी नीतिशास्त्र का समीक्षात्मक मूल्यांकन कीजिए।
  117. प्रश्न- काण्ट के अनुसार निरपेक्ष आदेश “Categorical Imprative” की व्याख्या कीजिए।
  118. प्रश्न- दण्ड के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  119. प्रश्न- दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। क्या मृत्युदण्ड उचित है? विवेचना किजिये।
  120. प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
  121. प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
  122. प्रश्न- दण्ड का दर्शन क्या है?

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